भारत की शिक्षा
भारत में शिक्षा व्यवस्था विश्वभर में प्रसिद्ध है। विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय प्राचीनकाल का तक्षशिला को माना जाता है | यहाँ पर शिक्षा सदैव महत्वपूर्ण मानी जाती रही है और आधुनिक सरकार भी यहाँ के नागरिकों को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करती है। देश में विभिन्न शैक्षिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों का विस्तारित नेटवर्क है, जो विद्यार्थियों को विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है। शिक्षा के क्षेत्र में भारत विज्ञान, कला, वाणिज्य, चिकित्सा, इंजीनियरिंग और अन्य विषयों में उच्चतम स्तर की शिक्षा प्रदान करता है। शिक्षा सुविधाएं न केवल नागरिकों के जीवन को स्वर्णिम बनाती हैं बल्कि देश को मजबूत और समृद्ध बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
प्राचीन भारत में शिक्षा का विकास
प्राचीन भारत में शिक्षा को अत्यधिक महत्व प्रदान किया गया था। व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास के लिए शिक्षा की आवश्यकता को सदा स्वीकार किया गया था| वैदिक युग से ही इसे प्रकाश का स्रोत माना गया था, जो मानव-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को आलोकित करते हुए उसे सही दिशा-निर्देश देता है|
प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में हमें अनौपचारिक तथा औपचारिक दोनों प्रकार के शैक्षणिक केन्द्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। औपचारिक शिक्षा मन्दिर, आश्रमों और गुरुकुलों के माध्यम से दी जाती थी| ये ही उच्च शिक्षा के केन्द्र भी थे| जबकि परिवार, पुरोहित, पण्डित, सन्यासी और त्यौहार, प्रसंग, आदि ,के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त होती थी|
विभिन्न धर्मसूत्रों में इस बात का उल्लेख है कि माता ही बच्चे की श्रेष्ठ गुरु है|. जैसे-जैसे सामाजिक विकास हुआ वैसे-वैसे शैक्षणिक संस्थाएँ स्थापित होने लगी|| वैदिक काल में परिषद, शाखा और चरण जैसे संघों का स्थापन हो गया था, लेकिन व्यवस्थित शिक्षण संस्थाएँ सार्वजनिक स्तर पर बौद्धों द्वारा प्रारम्भ की गई थी||
इसके पश्चात मध्यकाल में मुख्य रूप से इस्लामी शिक्षा का म्प्रचार प्रसार हुआ |
भारत में आधुनिक व पाश्चात्य शिक्षा की शुरुआत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन काल से हुई
मध्यकालीन भारत में शिक्षा का विकास
मध्यकालीन भारत में शिक्षा मुख्यतः मदरसों में प्रदान की जाती थी। मुग़ल शासकों ने दिल्ली, अजमेर, लखनऊ एवं आगरा में मदरसों का निर्माण करवाया। भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिमकता पर आधारित थी और इस्लामी शिक्षा धर्म आधारित हो गई | मध्ययुगीन भारत में दो प्रकार की शिक्षा संस्थाएं थी मकतब और मदरसे। | कहीं कहीं हिन्दुओं को मंदिरों में शिक्षा दी जाने लगी थी | इस काल में हिन्दू व मुसलमानों की अपनी - अपनी शिक्षण पद्धियां , संस्थाएं एवं पाठ्यक्रम थे। मुस्लिम आक्रमणों के फलस्वरूप तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला,आदि, प्राचीन उच्च शिक्षा के केन्द्र जिन्हे विश्श्ववविद्वियालय कहा जा सकता है , वे नष्ट कर दिए गये | फिर अनेक सदियों तक हिन्दू शिक्षा के विशाल केन्द्र उत्तरी भारत में स्थापित न किये जा सके। यह कहना न्यायसंगत न होगा कि इन विश्वविद्यालयों के अन्त के साथ ही प्राचीन हिन्दू - शिक्षा पद्धति भी समाप्त हो गयी। अब इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा।
आधुनिक भारत में शिक्षा का विकास
भारत में आधुनिक युग का आरंभ 1800 के आसपास से माना जाता है | आधुनिक शिक्षा की शुरुआत यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के द्वारा की गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे। जैसाकि आजकल की ही तरह, रविवार को विद्यालय बंद रहता था। अनेक शिक्षक छात्रों की पढ़ाई अनेक श्रेणियों में कराते थे। अध्यापन का समय नियत था। साल भर में छोटी बड़ी अनेक छुट्टियाँ हुआ करती थीं।
प्राय: 150 वर्षों के बीतते बीतते व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी राज्य करने लगी। विस्तार में बाधा पड़ने के डर से कंपनी शिक्षा के विषय में उदासीन रही। फिर भी विशेष कारण और उद्देश्य से 1781 में कलकत्ते में 'कलकत्ता मदरसा' कंपनी द्वारा और 1792 में बनारस में 'संस्कृत कालेज' जोनाथन डंकन द्वारा स्थापित किए गए। धर्मप्रचार के विषय में भी कंपनी की पूर्वनीति बदलने लगी। कंपनी अब अपने राज्य के भारतीयों को शिक्षा देने की आवश्यकता को समझने लगी। 1813 के आज्ञापत्र के अनुसार शिक्षा में धन व्यय करने का निश्चय किया गया। किस प्रकार की शिक्षा दी जाए, इस पर प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में मतभेद रहा। वाद विवाद चलता चला। अंत में लार्ड मेकाले के तर्क-वितर्क और राजा राममोहन राय के समर्थन से प्रभावित हो 1835 ई. में लार्ड बेंटिक ने निश्चय किया कि अंग्रेजी भाषा और साहित्य और यूरोपीय इतिहास, विज्ञान, इत्यादि की पढ़ाई हो और इसी में 1813 के आज्ञापत्र में अनुमोदित धन का व्यय हो। प्राच्य शिक्षा चलती चले, परंतु अंग्रेजी और पश्चिमी विषयों के अध्ययन और अध्यापन पर जोर दिया जाए।
पाश्चात्य तरीके से शिक्षित भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरते देख जनता इधर झुकने लगी। अंग्रेजी विद्यालयों में अधिक संख्या में विद्यार्थी प्रविष्ट होने लगे क्योंकि अंग्रेजी पढ़े भारतीयों को सरकारी पदों पर नियुक्त करने की नीति की सरकारी घोषणा हो गई थी। सरकारी प्रोत्साहन के साथ साथ अंग्रेजी शिक्षा को पर्याप्त मात्रा में व्यक्तिगत सहयोग भी मिलता गया। अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ अधिक कर्मचारियों की और चिकित्सकों,,इंजिनियरों और कानून जाननेवालों की आवश्यकता पड़ने लगी। उपयोगी शिक्षा की ओर सरकार की दृष्टि गई। मेडिकल, इजिनियरिंग और लॉ कालेजों की स्थापना होने लगी। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा फुले ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को इस योग्य बना दिया।स्त्री शिक्षा के लिए कई कठिनाइयों का सामना रूढ़ीवाद के कारण करना पडा | शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए। इसको देखकर स्त्री शिक्षा पर ध्यान दिया जाने लगा।
1853 में शिक्षा की प्रगति की जाँच के लिए एक समिति बनी। 1854 में बुड के शिक्षा घोषणापत्र में संस्कृत, अरबी और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। औद्योगिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। प्रातों में शिक्षा विभाग अध्यापक प्रशिक्षण नारी शिक्षा इत्यादि की सिफारिश की गई। 1857 में स्वतंत्रता युद्ध छिड़ गया जिससे शिक्षा की प्रगति में बाधा पड़ी। प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित ही रही। उच्च शिक्षा की उन्नति होती गई। 1857 में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए।आगे चलाकर अनेक विश्वविद्यालय स्थापित हुए |
मुख्यतः प्राथमिक शिक्षा की स्पथिति पर विचार करने के लिए 1882 में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग ने प्राथमिक शिक्षा के लिए उचित सुझाव दिए। आयोग की सिफारिशों से भारतीय शिक्षा में उन्नति हुई। विद्यालयों की संख्या बढ़ी। नगरों में नगरपालिका और गाँवों में जिला परिषद् का निर्माण हुआ और शिक्षा आयोग ने प्राथमिक शिक्षा को इनपर छोड़ दिया ,परंतु इससे विशेष लाभ न हो पाया। प्राथमिक शिक्षा की दशा सुधर न पाई। सरकारी शिक्षा विभाग माध्यमिक शिक्षा की सहायता करता रहा। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रही। मातृभाषा की उपेक्षा होती गई। शिक्षा संस्थाओं और शिक्षितों की संख्या बढ़ी, परंतु शिक्षा का स्तर गिरता गया। देश की उन्नति चाहनेवाले भारतीयों में व्यापक और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता का बोध होने लगा। स्वतंत्रताप्रेमी भारतीयों और भारतप्रेमियों ने सुधार का काम उठा लिया। 1870 में बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों द्वारा पूना में फर्ग्यूसन कालेज, 1886 में आर्यसमाज द्वारा लाहौर में दयानंद ऐंग्लो वैदिक कालेज और 1898 में काशी में श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा सेंट्रल हिंदू कालेज स्थापित किए गए। अनेक भारतीयों ने स्कूल खोले और शिक्षा योजनाएं प्रस्द्तुत की गांधीजी की वर्धा योजना भी उनमें से एक है | आजादी के बाद शिक्षा के विकास पर विचार करने के लिए अनेक आयोगों का गठन किया गया जिनके संस्तुतियों अनके विद्यालय और विस्वविद्यालय स्थापित किए गए तथा आवश्यकता के अनुसार शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन किया गया | वर्त्तमान में हम नयी शिक्षा नीति 2020 तक पहुँच चुके हैं जिसके द्वारा भारतीय शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था को सांस्कृतिक, तार्किक,,वैज्ञानिक और स्थानीय के साथ-साथ विश्व के लिए भी सक्षम बनाने का प्रयास किया जा रहा है| ,